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________________ भी नहीं होता और कपट से लोकरंजन के लिए मायायुक्त वचन भी नहीं होते । अय भाग्यशाली ! धर्मवचन तो स्पष्ट अक्षरों वाले, प्रकट रूप और माया रहित, सरल और मोक्ष के कारण हैं; इसे तू भलीभांति समझ ले ॥३९३॥ न वि धम्मस्स भडक्का, उक्कोडा वंचणा य कवडं वा । निच्छम्मो किर धम्मो, सदेवमणुयासुरे लोए ॥३९४॥ शब्दार्थ : और इस शुद्ध धर्म की साधना में कोई आडंबर नहीं है; या कोई बनावट-दिखावट नहीं है, तथा "यदि तू मुझे अमुक वस्तु दे तो मैं धर्म करूँ" इस प्रकार की सौदेबाजी (तृष्णा) भी नहीं है; दूसरों को ठगने के लिए भी यह धर्म नहीं हैं परंतु विमानवासी देव, मर्त्यलोकवासी मनुष्य और पातालवासी असुरों सहित तीनों जगत् में धर्म को सर्वत्र निष्कपट निर्दोष ही श्री तीर्थंकर भगवान् ने बताया है ॥३९४॥ भिक्खू गीयमगीए, अभिसेए तह य चेव रायणिए । एवं तु पुरिसवत्थु, दव्वाइ चउव्विहं सेसं ॥३९५॥ शब्दार्थ : कोई साधु स्थानांग-समवायांग व छेदसूत्रों का जानकार गीतार्थ हो, अथवा कोई इन शास्त्रों से अनभिज्ञ १. वर्तमान में पत्रिका में सोने की चेन, अंगुठी आदि का प्रलोभन छपवाकर धर्म करवाया जाता है। क्या उससे धर्म होता है ? चतुर्विध संघ के लिए विचारणीय है ॥ उपदेशमाला १५०
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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