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न करेइ पहे जयणं, तलियाणं तह करेइ परिभोगं । चरइ अणुबद्धवासे, सपक्खपरपक्खओ माणे ॥३६८॥
शब्दार्थ : जो मार्ग में चलते समय अचित्तजलगवेषणादिरूप यतना नहीं रखता, पाँवों में जूते के तलों का उपयोग करता है, और अपने पक्ष के साधु-श्रावकवर्ग में तथा दूसरे पक्ष के अन्य धर्म संप्रदायवालों में अपमान प्राप्त कर वर्षाऋतु में भी विहार करता है ॥३६८॥ संजोयइ अइबहुयं, इंगाल सधूमगं अणट्ठाए । भुंजइ रुवबलट्ठा, न धरेइ अ पायपुंछणयं ॥३६९॥
शब्दार्थ : जो साधु स्वाद के लिए अलग-अलग पदार्थों को मिलाता है; अतिमात्रा में आहार करता है, रागबुद्धि से स्वादिष्ट आहार करता है और अमनोज्ञ व रूखा भोजन मुँह बिगाड़कर खाता है। क्षुधावेदनीय अथवा वैयावृत्य आदि के कारण बिना ही अपने रूप और बल को बढ़ाने के लिए विविध पौष्टिक धातु आदि रसायनों का सेवन करता है, तथा जयणा के लिए रजोहरण व पादपोंछन भी नहीं रखता ॥३६९॥ अठ्ठमछठ्ठचउत्थं, संवच्छरचाउमासपक्खेसु । न करेइ सायबहुलो, न य विहरइ मासकप्पेणं ॥३७०॥ ___ शब्दार्थ : सुख का तीव्र अभिलाषी जो पासत्थादि साधु सांवत्सरिक पर्व पर अट्ठम तप (तेला) चातुर्मासिक पर्व पर छ? (बेला) और पाक्षिक (पक्खी) दिन पर चउत्थभक्त उपदेशमाला
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