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शब्दार्थ : ज्ञान, दर्शन और चारित्र की भलीभांति आराधना न करने वाला (पासत्थ), चारित्र में शिथिलाचारी (अवसन्न), शीलाचार से भ्रष्ट ( कुशील), अविनयपूर्वक पढ़ने व ज्ञान की विराधना करने वाले (नीच), जहाँ जैसा संग मिले वहाँ उसकी संगति से वैसा बन जाने वाला (संसक्त) और अपनी स्वच्छन्द (अच्छृंखल) बुद्धि से कल्पना करके उत्सूत्र प्ररूपणा करने वाला ( यथाच्छंदी); इन सबका भलीभांति स्वरूप जानकर सुविहित साधु सर्व-उपायों से उनसे दूर रहते हैं । क्योंकि उनका चारित्र नष्ट होने के कारण उनका संग करने योग्य नहीं ||३५३॥
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बायालमेसणाओ, न रक्खइ धाइसिज्जपिंडं च । आहारेई अभिक्खं, विगईओ सन्निहिं खाइ ॥ ३५४ ॥
शब्दार्थ : जो आहार के बयालीस दोषों से नहीं बचता; दोषयुक्त आहार लेता है, धात्रीपिंड (किसी बच्चे को खिलाने पर जो आहार मिले वह) ले लेता है तथा शय्यातरपिंड भी ग्रहण कर लेता है, बिना कारण हमेशा दूध, दही, घी आदि विकृति (विग्गई) जनक पदार्थों को खाता है तथा जो बार-बार रहता है, रात - दिन चरता रहता है, या दिन में लाकर रात को रखता है; उस संचित पदार्थ को दूसरे दिन में खाता है; वह पार्श्वस्थ कहलाता है || ३५४ ॥
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सूरप्पमाणभोई, आहारेई अभिक्खमाहारं । न य मंडलीइं भुंजइ, न य भिक्खं हिंडई अलसो ॥ ३५५॥
उपदेशमाला
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