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________________ शब्दार्थ : 'जो मनुष्य अपनी उत्तमजाति' उच्च कुल, मनोहर रूप, महान ऐश्वर्य, अतिबल, अधिक विद्या, तप करने की शक्ति और प्रचुर धन व सुखसामग्री प्राप्त करके अभिमान में चूर होकर अन्य जीवों की निन्दा या बदनामी करता है, उन्हें नीचा दिखाने की चेष्टा करता है, वह चारगति रूप अनंत संसार में जाति आदि की हीनता प्राप्त करके अनंतकाल तक परिभ्रमण करता है । इसीलिए बुद्धिमान पुरुष अभिमान का सर्वत्र त्याग करते हैं ॥३३१-३३२॥ सुट्ठ वि जई जयंतो, जाईमयाईसु मुज्झई जो उ। सो मेयज्जरिसी जह, हरिएसबलो व्व परिहाइ ॥३३३॥ शब्दार्थ : यदि कोई साधु एक ओर अत्यंत यतनापूर्वक दुष्कर चारित्र की आराधना करता हो, परंतु दूसरी ओर जाति आदि आठ मदों में चूर रहता हो तो उसे मेतार्य मुनि और हरिकेशीबल साधु की तरह नीच जाति में जन्म लेना पड़ता है ॥३३३॥ इन दोनों मुनियों की कथा पहले आ गयी है। इत्थिपसुसंकिलिटुं, वसहिं इत्थीकहं च वज्जतो । इत्थिजणसंनिसिज्जं, निरूवणं अंगुवंगाणं ॥३३४॥ पुव्वरयाणुस्सरणं, इत्थीजणविरहरूवविलवं च । अइबहुय अइबहुसो, विवज्जंतो य आहारं ॥३३५॥ वज्जतो अ विभूसं, जइज्ज इह बंभचेरगुत्तीसु । साहू तिगुत्तिगुत्तो, निहुओ दंतो पसंतो य ॥३३६॥ त्रिभिर्विशेषकम् उपदेशमाला १२५
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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