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________________ उनके सम्मुख न देखें; न मूच्छित हों, अपितु मुनि-मार्ग में रहकर धर्माचरण करने में सदा उद्यम करें ॥३२८॥ निहयाणिहयाणि य इंदियाणि, धाएहणं पयत्तेणं । अहियत्थे नियाई, हियकज्जे पूयणिज्जाइं ॥ ३२९॥ शब्दार्थ : 'जब इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों पर मुनिवर राग और द्वेष नहीं होने देते, तभी उनकी वे इन्द्रियाँ वशीभूत हुई कही जाएँगी । अन्यथा, इन्द्रियों के अपने-अपने विषयों में दौड़ते रहने से या उनकी प्रवृत्तियों को बिल्कुल रोककर निश्चेष्ट कर देने मात्र से वे वशीभूत हुई नहीं कहलातीं । उस समय कदाचित् कुछ वश में होती हैं, कुछ नहीं होतीं । अतः मुनियो ! प्रयत्नपूर्वक इन्द्रियों को वश में करो ।' कहने का मतलब यह है कि जिस समय आँखें स्त्रियों के सुंदर अंगोपांगों को देखने लिए लालायित हो रही हों, कान मधुर, अश्लील शब्दों को सुनने के लिए उद्यत हों, नाक सुगंध लेने के लिए आतुर हो, हाथ-पैर कोमल-कोमल स्पर्श के लिए ललचा रहे हों, जीभ मीठे - खट्टे आदि रसों को चखने के लिए उतारू हो रही हो, यानी इन्द्रियाँ अहितमार्ग में जाने को उद्यत हों, उस समय तुरंत उन्हें रोककर हितमार्ग में लगाने का प्रयत्न करें । अर्थात्- आँखों को भगवान् के शुभदर्शन में, कानों को उनकी वाणी श्रवण करने में तथा अन्य इन्द्रियों को भी इस प्रकार के शुभ भद्र और कल्याण में लगाएँ । क्योंकि उपदेशमाला १२३
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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