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________________ आजीविकाकारी कहलाता है । अर्थात् वह साधुवेष धारण करके सिर्फ पेट भरने वाला कहलाता है ॥२९८॥ पुव्विं चक्खूपरिक्खिय, पमज्जिउं जो ठवेइ गिण्हइ वा । आयाणभंडमत्तनिक्खेवणाए, समिओ मुणी होइ ॥२९९॥ शब्दार्थ : जो मुनि पहले आँखों से अच्छी तरह देखभाल कर और फिर रजोहरणादि से प्रमार्जन (पूंज) कर कोई भी वस्त्र-पात्र आदि वस्तु भूमि पर रखता है, अथवा भूमि पर से उठाता (ग्रहण करता) है, वह मुनि आदान (भूमि पर से वस्तुग्रहण) भंड (उपकरण) निक्षेपणा (पृथ्वी पर रखने की) समिति से युक्त कहलाता है ॥२९९।। उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणए, य पाणविही । सुविवेइए पएसे, निसिरंतो होइ तस्समिओ ॥३००॥ शब्दार्थ : बड़ी नीति (शौच), लघुनीति (मात्रा), कफ आदि मुख का मैल, शरीर का मैल पसीना आदि, नाक का मैल (लीट) तथा अशुद्ध आहार-पानी आदि को जीवजंतु रहित निर्दोष स्थान में अच्छी तरह देखभाल कर विवेक से परिष्ठापन करने (डालने) वाला मुनि पारिष्ठापनिकासमितिपालक कहलाता है ॥ ३००॥ कोहो, माणो, माया, लोभो हासो, रई य अरई य । सोगो, भयं दुगंछा, पच्चक्खकली इमे सव्वे ॥३०१॥ ___ शब्दार्थ : 'क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा ये सारे प्रत्यक्ष क्लेश के कारण और उपदेशमाला
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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