________________
धम्म पि नाम नाऊण, कीस पुरिसा सहति पुरिसाणं ? । सामित्ते साहीणे, को नाम करिज्ज दासत्तं ? ॥२८८॥
शब्दार्थ : इस तरह प्रचुर दुःखमय-संसारोच्छेदक सर्वज्ञप्रणीत सद्धर्म को सद्गुरु से जानकर स्व-पर-कल्याण की साधना करने में प्रयत्नशील सत्पुरुष की तरह जागृत होने के बदले, स्वहित साधन से जीव क्यों उपेक्षा करता है ? शुद्ध देव, गुरु और धर्मतत्त्व को यथार्थ रूप से जानने के बाद उसकी आराधना में प्रमाद करना अत्यंत अनुचित है। अरे ! ऐसा कौन मूर्ख है कि स्वामित्व छोड़कर दासत्व स्वीकार करने को तैयार हो ? जो साधक सर्वसुखदायी श्रीजिनेश्वर कथित सदधर्म का अनादर कर विषयकषायादि प्रमाद में ही तत्पर रहता है; वह सद्गति का अनादर करके दुर्गति में अवश्य ही जाता है और दासत्व प्राप्त करता है, परंतु जो जिनवचन की आज्ञारूपी धर्म का पालन करता है, वह सब पर स्वामित्व प्राप्त करता है ॥२८८॥ इसीलिए श्रीजिनप्ररूपित धर्म की आज्ञा माननी चाहिए । संसारचारए चारए व्व, आवीलियस्स बंधेहिं । उव्विग्गो जस्स मणो, सो किर आसन्न-सिद्धिपहो ॥२८९॥
शब्दार्थ : इस चारगति रूपी संसार के परिभ्रमण-समान कैदखाने में अनेक प्रकार के कर्मबंधन से पीड़ित जिस पुरुष का मन उद्विग्न हो गया हो; अर्थात् 'इस संसाररूपी बंधन से मैं उपदेशमाला
१०६