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शब्दार्थ : गुरु के उपदेश को अयोग्य समझने वाला, अपनी स्वच्छन्द बुद्धि से कल्पना करके विचरने वाला और स्वतन्त्र बुद्धि से चेष्टा करने वाला जीव अपना पारलौकिक हित कैसे कर सकता है? ॥२६॥ थद्धो निरुवयारी अविणिओ, गव्विओ निरुवणामो । साहुजणस्स गरहिओ, जणे वि वयणिज्जयं लहइ ॥२७॥ ___ शब्दार्थ : स्तब्ध (अक्कड़) निरुपकारी, अविनीत, गर्वित, किसी के सामने नमन न करने वाला पुरुष, साधुजनों द्वारा निन्दित है और आम जनता में भी वह निन्दनीयता पाता है ॥२७॥ थोवेणवि सप्पुरिसा, सणंकुमार व्व केइ बुझंति । देहे खण परिहाणी, जं किर देवेहिं से कहियं ॥२८॥
शब्दार्थ : सत्पुरुष (सुलभबोधि व्यक्ति) सनत्कुमार चक्री की तरह जरा सा निमित्त पाकर बोध प्राप्त कर लेते हैं । सुना है, देवताओं ने सनत्कुमार से इतना ही कहा था कि 'तुम्हारे शरीर का रूप क्षणमात्र में नष्ट हो गया है । इतनासा वचन ही उनके लिये प्रतिबोध का कारण बना।' ॥२८॥ जइ ताव लवसत्तमसुरविमाणवासी, वि परिवडंति सुरा । चिंतिज्जतं सेसं, संसारे सासयं कयरं ॥२९॥
शब्दार्थ : यदि अनुत्तरविमानवासी देवताओं का भी आयुष्य पूर्ण हो जाता है तो फिर विचार करें कि शेष संसार में क्या (किसका जीवन) शाश्वत (कायम) है? ॥२९॥ उपदेशमाला