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________________ उल्लसन् मनसः सत्य, घण्टां वादयतस्तव । भावपूजारतस्येत्थं, करक्रोडे महोदयः ॥ ७ ॥ भावार्थ : उल्लसित मन से सत्य रूप घण्टवादन करता हुआ और भाव पूजा में लीन बना हुआ तेरा मोक्ष तेरी हथेली में ही है ||७|৷ द्रव्यपूजोचिता भेदो, पासना गृहमेधिनाम् । भावपूजा तु साधूनामभेदोपासनात्मिका ॥ ८ ॥ भावार्थ : गृहस्थों को भेदपूर्वक उपासनारूप द्रव्य पूजा योग्य है और अभेद उपासना रूप भावपूजा तो साधुओं को ही योग्य है ॥८॥ ध्यानाष्टकम्-30 ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्र्यं यस्यै कतां गतम् । मुनेरनन्यचित्तस्य, तस्य दुःखं न विद्यते ॥ १ भावार्थ : ध्याता ध्येय और ध्यान इन तीनों की एकरूपता को जिसने प्राप्त कर लिया है, ऐसे एकाग्रचित्त मुनि को कोई दुःख नहीं होता ॥१॥ ध्यातान्तरात्मा ध्येयस्तु, परमात्मा प्रकीर्तितः । ध्यानं चैकाग्र्यसंवित्तिः समापत्तिस्तदेकता ॥ २ ॥ , भावार्थ : ध्यान करने वाला अन्तरात्मा है, ध्येय परमात्मा को कहा गया है और ध्यान एकाग्रता की बुद्धि है । इन तीनों की एकता को समापत्ति कहा जाता है ||२|| ६७
SR No.034146
Book TitleGyansara Ashtak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages80
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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