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________________ शुद्धोञ्छाद्यपि शास्त्राज्ञा, निरपेक्षस्य नो हितम् । भौतहन्तुर्यथा तस्य, पदस्पर्शनिवारणम् ॥ ६ ॥ भावार्थ : शास्त्र की आज्ञा से रहित स्वच्छंद मति शुद्ध गोचरी वगैरह बाह्य क्रिया करता है, पर वह हितकारक नहीं है । जैसे (राजा का) भौतमति के मारक को ऐसा आदेश देना-"भौतमति के पाँव का स्पर्श मत करना" ॥६॥ अज्ञानाहिमहामन्त्रं, स्वाच्छन्द्यज्वरलङ्घनम् । धर्मारामसुधाकुल्यां, शास्त्रमाहुर्महर्षयः ॥ ७ ॥ भावार्थ : ये शास्त्र अज्ञान रूपी सर्प का जहर उतारने में महामंत्र समान हैं। स्वच्छन्दता रूपी ज्वर का नाश करने में उपवास के समान हैं । धर्म रूपी बगीचे में अमृत की क्यारी समान हैं। ऐसा ऋषियों का कथन है ॥७॥ शास्त्रोक्ताचारकर्ता च, शास्त्रज्ञः शास्त्रदेशकः । शास्त्रैकदृग्महायोगी, प्राप्नोति परमं पदम् ॥ ८ ॥ भावार्थ : शास्त्रनिर्दिष्ट आचार का पालन करने वाला, शास्त्रज्ञ, शास्त्र का उपदेश करने वाला, तथा शास्त्र में एक दृष्टि रखने वाला महान् योगी परमपद को प्राप्त करता है ॥८॥ परिग्रह-त्यागाष्टकम्-25 न परावर्तते राशेर्वक्रतां जातु नोज्झति । परिग्रहग्रहः कोऽयं, विडम्बितजगत्त्रय ? ॥१॥
SR No.034146
Book TitleGyansara Ashtak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages80
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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