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________________ जाती है और परमभाव को खोजने वाली आत्मा अविवेक में निमग्न नहीं बनती ॥६॥ आत्मन्येवात्मनः कुर्याद्, यः षट्कारकसंगतिम् । वाविवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जडमज्जनात् ? ॥ ७ ॥ भावार्थ : जो आत्मा में ही आत्मा के छ: कारकों का संबंध करता है उसे पुद्गलों में मग्न होने से, होने वाला अविवेक रूप ज्वर का वैषम्य कहाँ से होगा ? ॥७॥ संयमास्त्रं विवेकेन, शाणेनोत्तेजितं मुनेः ।। धृतिधारोल्बणं कर्म, शत्रुच्छेदक्षमं भवेत् ॥ ८ ॥ भावार्थ : विवेकरूप शाण द्वारा अत्यन्त तीक्ष्ण किया हुआ तथा धैर्य रूप धार से उग्र किया हुआ मुनि का संयमरूप शस्त्र कर्मरूप शत्रु का नाश करने में समर्थ होता है ॥८॥ माध्यस्थाष्टकम्-16 स्थीयतामनुपालम्भ, मध्यस्थेनान्तरात्मना । कुतर्ककर्करक्षेपैस्त्यज्यतां बालचापलम् ॥ १ ॥ भावार्थ : शुद्ध अन्तरंग परिणाम से मध्यस्थ होकर, उपालंभ न मिले इस प्रकार रहो । कुयुक्ति रूप कंकर डालने रूप बाल्यावस्था की चपलता का त्याग करो ॥१॥ मनोवत्सो युक्तिगवीं, मध्यस्थस्यानुधावति । तामाकर्षति पुच्छेन, तुच्छाग्रहमनः कपिः ॥ २ ॥ ३६
SR No.034146
Book TitleGyansara Ashtak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages80
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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