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भावार्थ : जिससे न तो मणि में प्रवृत्ति हो और न उस प्रवृत्ति का फल प्राप्त होता हो, ऐसे अवास्तविक मणि का ज्ञान, मणि की श्रद्धा जैसी होती है ॥४॥ तथा यतो न शुद्धात्म, स्वभावाचरणं भवेत् । फलं दोषनिवृत्तिर्वा, न तज्ज्ञानं न दर्शनम् ॥ ५ ॥
भावार्थ : वैसे ही जिससे शुद्ध आत्म-स्वभाव का आचरण अथवा दोष निवृत्ति रूप फल नहीं मिलता वह न तो ज्ञान है और न दर्शन है ॥५॥ यथा शोफस्य पुष्टत्वं, यथा वा वध्यमण्डनम् । तथा जानन् भवोन्माद, मात्मतृप्तो मुनिर्भवेत् ॥ ६ ॥
भावार्थ : जिस प्रकार सूजन आ जाने से पुष्ट हो जाने की कल्पना करे अथवा वध करने योग्य पुरुष को माला पहनाने से वह गौरव की कल्पना करे । संसार का उन्माद ऐसा ही है इसलिए ऐसे उन्माद को जानने वाले मुनि आत्मा के विषय में संतुष्ट रहते हैं ॥६॥ सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगानां मौनमुत्तमम् ॥ ७ ॥
भावार्थ : वाणी का उच्चारण नहीं करने रूप मौन एकेन्द्रियों को भी सुलभ है लेकिन पुद्गलों में मन वचन काया की अप्रवृत्ति ही श्रेष्ठ मौन कहलाता है ॥७॥