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ज्ञानसार-अष्टक
पूर्णताष्टकम्-1 ऐन्द्रश्रीसुखमग्नेन, लीलालग्नमिवाखिलम् । सच्चिदानन्दपूर्णेन पूर्णं जगदवेक्ष्यते ॥ १ ॥
भावार्थ : जिस प्रकार लक्ष्मी सुख में मग्न बना इन्द्र समस्त जगत को सुख में मग्न बना देखता है। उसी प्रकार सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र से पूर्ण ऐसा सच्चिदानन्द योगी जगत को दर्शन, ज्ञान चरित्र से पूर्ण देखता है ॥१॥ पूर्णता या परोपाधेः, सा याचितक-मण्डनम्, । या तु स्वाभाविकी सैव जात्यरत्नविभानिभा ॥ २ ॥
भावार्थ : पर-वस्तुओं से बनी जो पूर्णता है वह मांग कर लाये गये आभूषणों की तरह अनित्य है। जो स्वभाव जन्य पूर्णता है, वह उत्तम रत्नों की दिव्य कांति जैसी है ॥२॥ अवास्तवी विकल्पैः स्यात्, पूर्णताब्धेरिवोर्मिभिः । पूर्णानन्दस्तु भगवान् स्तिमितोदधिसन्निभः ॥ ३ ॥
भावार्थ : समुद्री तरंगों से जो ज्वार रूप पूर्णता होती है, वह अवास्तविकी अर्थात् झूठी है। उसी प्रकार आत्मा में भी विकल्पजन्य जो पूर्णता का आभास होता है, वह अस्थिर