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त्योहार के दिनों में जब सभी लोग मिठाईयाँ खा रहे होते हैं, तब गरीब घर के लड़के अपनी मम्मी से जिद करते हैं- “मम्मी, मुझे भी मिठाई खानी है।" मम्मी उसे प्रेम से कहती है.... “बेटा, तुम्हें अवश्य मिठाई दूँगी...." बालक खाना खाने बैठता है तो मम्मी खाना परोसती है, तब बालक जिद पकड़ लेता है- "नहीं, मम्मी! मुझे रोटी नहीं चाहिए, मुझे मिठाई चाहिए ।" "बेटा, आज रोटी खा ले, कल मिठाई खा लेना।" "नहीं, मुझे आज ही मिठाई चाहिए ।" "बेटा, मिठाई घर में नहीं है, तो तुझे कहाँ से लाकर दूँ?” “नहीं, मुझे मिठाई...”
और, लड़का थाली को लात मार देता है... उसकी मम्मी झोपड़ी के कोने में जाकर साड़ी के पल्लू से मुँह ढँककर रोने लगती है... उसके मन में विचारों का बवंडर चलने लगता है... “बेटा, मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ? हम इतने अमीर नहीं हैं कि हम मिठाई खा सकें, इस घर में तो रोटी भी कैसे आती है, यह मेरा मन जानता है...”
उधर बालक रोता है, और इधर उसकी मम्मी रोती है। सामने खाट पर बैठे हुए उसके पापा का गला भर आता है... My dears, हम तो बहुत सारी मिठाईयाँ और तरह-तरह के पकवान खाते हैं, अब आपके हाथ में जब भी मिठाई आए, तब एक टुकड़ा लेकर ऐसी झोपड़ी में जाना, और मिठाई के लिए रोते हुए किसी बच्चे के मुँह में वह टुकड़ा रखना। उस वक्त उसके चेहरे पर जो smile आएगा, वह देखकर आपको जो आनन्द होगा... You will say - ऐसा आनन्द तो जीवन में कभी नहीं मिला।
Remember, हम जो खाते हैं, उसका स्वाद तो दो - पाँच मिनट ही रहता है, परन्तु जब हम खिलाते हैं, तो उसका स्वाद जीवनपर्यन्त रहता है। जो आनन्द दूसरों को खिलाने में है, वह आनन्द स्वयं खाने में नहीं है, जो आनन्द दूसरों के आँसू पोंछने मे है, वह मजा स्वयं हँसने में नहीं है, जो मजा दूसरों को बाँटने में है, वह मजा इकट्ठा करने में नहीं है। सुख मिले तो उसे बाँटना सीखें, दुःख आए तो उसे अकेले सहन करना सीखें।
अपने सुख की महफिल में सबको बुलाना परन्तु अपने अश्रुओं का ताल अकेले ही खाना। मिल-बाँटकर खाने का नाम संस्कृति है। संग्रह करके खाने का नाम विकृति है।