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ज्ञानोपलब्धिका उपाय
ज्ञानोपलब्धिका उपाय अतो विमुक्त्यै प्रयतेत विद्वान्
संन्यस्तबाह्यार्थसुखस्पृहः सन्। सन्तं महान्तं समुपेत्य देशिकं
तेनोपदिष्टार्थसमाहितात्मा ॥८॥ इसलिये विद्वान् सम्पूर्ण बाह्य भोगोंकी इच्छा त्यागकर सन्तशिरोमणि गुरुदेवकी शरण जाकर उनके उपदेश किये हुए विषयमें समाहित होकर मुक्तिके लिये प्रयत्न करे। उद्धरेदात्मनात्मानं मग्नं संसारवारिधौ। योगारूढत्वमासाद्य सम्यग्दर्शननिष्ठया॥ ९॥
और निरन्तर सत्य वस्तु आत्माके दर्शनमें स्थित रहता हुआ योगारूढ होकर संसार-समुद्रमें डूबे हुए अपने आत्माका आप ही उद्धार करे।
संन्यस्य सर्वकर्माणि - भवबन्धविमुक्तये। यत्यतां पण्डितैधीरैरात्माभ्यास उपस्थितैः॥१०॥
आत्माभ्यासमें तत्पर हुए धीर विद्वानोंको सम्पूर्ण कर्मोंको त्यागकर भव-बन्धनकी निवृत्तिके लिये प्रयत्न करना चाहिये। चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये। वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किञ्चित् कर्मकोटिभिः॥११॥
कर्म चित्तकी शुद्धिके लिये ही है, वस्तूपलब्धि (तत्त्वदृष्टि)-के लिये नहीं। वस्तु-सिद्धि तो विचारसे ही होती है, करोड़ों कर्मोंसे कुछ भी नहीं हो सकता। सम्यग्विचारतः सिद्धा रज्जुतत्त्वावधारणा। भ्रान्त्योदितमहासर्पभयदुःखविनाशिनी ॥१२॥
भलीभाँति विचारसे सिद्ध हुआ रज्जुतत्त्वका निश्चय भ्रमसे उत्पन्न हुए महान् सर्पभयरूपी दु:खको नष्ट करनेवाला होता है।