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विवेक-चूडामणि
यह अहंस्वभाववाला विज्ञानमय कोश ही अनादिकालीन जीव और संसारके समस्त व्यवहारोंका निर्वाह करनेवाला है। यह अपनी पूर्ववासनासे पुण्य-पापमय अनेकों कर्म करता और उनके फल भोगता है तथा विचित्र योनियोंमें भ्रमण करता हुआ कभी नीचे आता और कभी ऊपर जाता है। जाग्रत् , स्वप्न आदि अवस्थाएँ, सुख-दुःख आदि भोग, देहादिसे सम्बन्धित आश्रमादिके धर्म-कर्म, गुणोंका अभिमान और ममता आदि सर्वदा इस विज्ञानमय कोशमें ही रहते हैं। यह आत्माकी अति निकटताके कारण अत्यन्त प्रकाशमय है; अत: यह इसकी उपाधि है, जिसमें भ्रमसे आत्मबुद्धि करके यह जन्म-मरणरूप संसारचक्रमें पड़ता है।
आत्माकी उपाधिसे असंगता योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृदि स्फुरत्स्वयंज्योतिः। कूटस्थः सन्नात्मा कर्ता भोक्ता भवत्युपाधिस्थः॥१९१॥
यह जो स्वयंप्रकाश विज्ञानस्वरूप हृदयके भीतर प्राणादिमें स्फुरित हो रहा है, वह कूटस्थ (निर्विकार) आत्मा होनेपर भी उपाधिवश कर्ता भोक्ता हो जाता है। स्वयं परिच्छेदमुपेत्य बुद्धे
स्तादात्म्यदोषेण परं मृषात्मनः । सर्वात्मकः सन्नपि वीक्षते स्वयं
स्वतः पृथक्त्वेन मृदो घटानिव ॥१९२॥ वह परात्मा मिथ्या बुद्धिसे परिच्छिन्न होकर उससे एकीभूत हो जानेके दोषसे स्वयं सर्वात्मक होते हुए भी मिट्टीसे घड़ेके समान अपनेको अपनेहीसे पृथक् देखता है। उपाधिसम्बन्धवशात्परात्मा
झुपाधिधर्माननु भाति तद्गुणः। अयोविकारानविकारिवलिवत्
सदैकरूपोऽपि परः स्वभावात्॥१९३॥