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उपदेशका उपसंहार
सदात्मनि ब्रह्मणि तिष्ठतो मुनेः पूर्णाद्वयानन्दमयात्मना देशकालाद्युचितप्रतीक्षा त्वङ्मांसविट्पिण्डविसर्जनाय
॥ ५५८ ॥
सत्स्वरूप ब्रह्ममें सदैव परिपूर्ण अद्वितीय आनन्दस्वरूपसे स्थित रहनेवाले मुनिको इस त्वचा, मांस और मल-मूत्रके पिण्डको त्यागनेके लिये किसी योग्य देशकाल आदिकी अपेक्षा नहीं होती।
देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलोः । अविद्याहृदयग्रन्थिमोक्षो
मोक्षो यतस्ततः ।। ५५९ ॥ क्योंकि मोक्ष हृदयकी अविद्यारूप ग्रन्थिके नाशको ही कहते हैं । इसलिये देह अथवा दण्ड- कमण्डलुके त्यागका नाम मोक्ष नहीं है। कुल्यायामथ नद्यां वा शिवक्षेत्रेऽपि चत्वरे । पर्णं पतति चेत्तेन तरोः किं नु शुभाशुभम् ॥ ५६० ॥
वृक्षका सूखकर झड़ा हुआ पत्ता नालीमें, नदीमें, शिवालयमें अथवा किसी चबूतरेपर कहीं भी गिरे, उससे वृक्षका क्या हानि-लाभ हो सकता है ? पत्रस्य पुष्पस्य फलस्य नाशवद् देहेन्द्रियप्राणधियां
विनाश: ।
नैवात्मनः स्वस्य सदात्मकस्या
न
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सदा ।
नन्दाकृतेर्वृक्षवदस्ति
चैषः ॥ ५६१ ॥
वृक्षके पत्ते, फूल और फलोंके समान नाश तो जीवके देह, इन्द्रिय, प्राण और बुद्धि आदिका ही होता है, सदानन्दस्वरूप स्वयं आत्माका नाश कभी नहीं होता; वह तो वृक्षके समान नित्य निश्चल है। प्रज्ञानघन इत्यात्मलक्षणं अनूद्यौपाधिकस्यैव कथयन्ति
सत्यसूचकम् । विनाशनम् ॥ ५६२ ॥
'प्रज्ञानघन' यह आत्माका लक्षण उसकी सत्यताका सूचक है - विज्ञजन
ऐसा अनुवाद (वर्णन) करके उपाधि-कल्पित वस्तुका ही विनाश बतलाते हैं।