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बोधोपलब्धि
रवेर्यथा कर्मणि साक्षिभावो
वह्नेर्यथा वायसि दाहकत्वम् ।
रज्जोर्यथारोपितवस्तुसङ्ग
स्तथैव कूटस्थचिदात्मनो मे ॥ ५०७ ॥
मनुष्योंके कर्मोंमें जैसे सूर्यका साक्षीभाव है, लोहेके जलानेमें जैसे अग्निकी दाहकता है और आरोपित सर्पादिसे जैसे रज्जुका संग है, वैसे ही मुझ कूटस्थ चेतन आत्माका विषयोंमें साक्षीभाव है। [ अर्थात् जैसे उनकी प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक हैं, क्रियमाण नहीं, वैसे ही आत्माका साक्षीभाव भी विषयोंकी अपेक्षासे स्वाभाविक है, वह उसकी क्रिया नहीं है । ] कर्तापि वा कारयितापि नाहं
भोक्तापि वा भोजयितापि नाहम् ।
द्रष्टापि वा दर्शयितापि नाहं सोऽहं
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स्वयंज्योतिरनीदृगात्मा ॥ ५०८ ॥
मैं न करनेवाला हूँ, न करानेवाला हूँ; न भोगनेवाला हूँ, न भुगतवानेवाला हूँ; और न देखनेवाला हूँ, न दिखानेवाला हूँ। मैं तो सबसे विलक्षण स्वयंप्रकाश आत्मा ही हूँ।
चलत्युपाधौ प्रतिविम्बलौल्य
मौपाधिकं मूढधियो नयन्ति ।
स्वविम्बभूतं रविवद्विनिष्क्रियं
कर्तास्मि भोक्तास्मि हतोऽस्मि हेति ।। ५०९ ॥ जिस प्रकार [ जलरूप ] उपाधिके चंचल होनेपर मूढबुद्धि पुरुष औपाधिक प्रतिविम्बकी चंचलताका विम्बभूत सूर्यमें आरोप करते हैं, उसी प्रकार वे सूर्यके समान निष्क्रिय आत्मामें [ चित्तकी चंचलताका आरोप कर ] 'मैं कर्ता हूँ, भोक्ता हूँ, हाय मारा गया' ऐसा कहा करते हैं। जले वापि स्थले वापि लुठत्वेष जडात्मकः । नाहं विलिप्य तद्धर्मैर्घटधर्मैर्नभो यथा ॥ ५१० ॥