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विवेक-चूडामणि
नारायणोऽहं नरकान्तकोऽहं
पुरान्तकोऽहं पुरुषोऽहमीशः। अखण्डबोधोऽहमशेषसाक्षी
निरीश्वरोऽहं निरहं च निर्ममः ॥ ४९५ ॥ मैं [ क्षीरसमुद्रशायी ] नारायण हूँ, नरकासुरका विघातक हूँ, त्रिपुरदैत्यका नाश करनेवाला हूँ, परम पुरुष हूँ और ईश्वर हूँ। मैं अखण्डबोधस्वरूप हूँ, सबका साक्षी हूँ, स्वतन्त्र हूँ तथा अहंता और ममतासे रहित हूँ। सर्वेषु भूतेष्वहमेव संस्थितो
ज्ञानात्मनान्तर्बहिराश्रयः सन्। भोक्ता च भोग्यं स्वयमेव सर्वं
यद्यत्पृथग्दृष्टमिदन्तया पुरा॥४९६ ॥ ज्ञानस्वरूपसे सबका आश्रय होकर समस्त प्राणियोंके बाहर और भीतर मैं ही स्थित हूँ तथा पहले जो-जो पदार्थ इदंवृत्तिद्वारा भिन्न-भिन्न देखे गये थे वह भोक्ता और भोग्य सब कुछ स्वयं मैं ही हूँ।
मय्यखण्डसुखाम्भोधौ बहुधा विश्ववीचयः। उत्पद्यन्ते विलीयन्ते मायामारुतविभ्रमात्॥४९७॥
मुझ अखण्ड आनन्द-समुद्र में विश्वरूपी नाना तरंगें मायारूपी वायुके वेगसे उठती और लीन होती रहती हैं। स्थूलादिभावा मयि कल्पिता भ्रमा
दारोपिता नु स्फुरणेन लोकैः। काले यथा कल्पकवत्सराय
. नादयो निष्कलनिर्विकल्पे॥४९८॥ जैसे निष्कल (हानि-वृद्धि-शून्य) और निर्विकल्प कालमें स्वरूपसे कोई कल्प, वर्ष, अयन (उत्तरायण-दक्षिणायन) और ऋतु आदिका विभाग नहीं है, उसी प्रकार लोगोंने भ्रमवश केवल स्फुरणमात्रसे ही आरोपित करके मुझमें स्थूल-सूक्ष्म आदि भावोंकी कल्पना कर ली है।
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