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श्रमण सूक्त
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वणस्सइं विहिसतो
हिंसई उ तयस्सिए। तसे य विविहे पाणे
चक्खुसे य अचक्खुसे।।
तम्हा एय वियाणित्ता
दोस दुग्गइवड्ढणं। वणस्सइसमारभ जावज्जीवाए वज्जए।।
(दस. ६
४१, ४२)
वनस्पति की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियो की हिंसा करता है। इसीलिए इसे दुर्गतिवर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त वनस्पति के समारभ का वर्जन करे।