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श्रमण सूक्त
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दस अट्ठ य ठाणाइ
जाइ बालोऽवरज्झई। तत्थ अन्नयरे ठाणे
निग्गथत्ताओ भस्सई।। (वयछक्क कायछक्क
अकप्पो गिहिभायण। पलियक निसेज्जा य सिणाण सोहवज्जण।
(दस ६ ७) आचार के अठारह स्थान हैं। जो अज्ञ उनमे से किसी एक भी स्थान की विराधना करता है, वह निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट होता है।
(अठारह स्थान ये हैं-छह महाव्रत और छह काय तथा अकल्प, गृहस्थ-पात्र, पर्यड़ क, निषद्या, स्नान और शोभा का वर्जन)
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