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श्रमण सूक्त
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लभ्रूण वि देवत्त उववन्नो देवकिब्बिसे।
तत्था वि से न याणाइ कि मे किच्चा इम फलं?|| तत्तो वि से चइत्ताण लब्भिही एलमूयय।
नरय तिरिक्खजोणि वा बोही जत्थ सुदुल्लहा।। एय च दोस दटूण नायपुत्तेण भासिय। अणुमाय पि मेहावी मायामोस विवज्जए? ।।
(दस. ५ (२): ४७-४६)
किल्बिषिक देव के रूप मे उपपन्न जीव देवत्व को पाकर भी वहा वह नहीं जानता कि 'यह मेरे किये कार्य का फल
वहा से च्युत होकर वह मनुष्य-गति मे आ एडमूकता (गूगापन) अथवा नरक या तिर्यञ्चयोनि को पाएगा, जहा बोधि अत्यन्त दुर्लभ होती है। __ इस दोष को देखकर ज्ञातपुत्र ने कहा-मेघावी मुनि अणु-मात्र भी मायामृषा न करे।
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