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श्रमण सूक्त
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ज भवे भत्तपाण तु
कप्पाकप्पम्मि संकिय। देतिय पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिस ।।
(दस ५ (१) ४४)
जो भक्त-पान कल्प और अकल्प की दृष्टि से शकायुक्त हो. उसे देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे—इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता।
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