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श्रमण सूक्त
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७६ उदगम्मि होज्ज निक्खित्त उत्तिगपणसेसु वा। त भवे भत्तपाण तु सजयाण अकप्पिय।।
(द ५ (१) ५६ ग, घ, ६० क, ख) यदि भक्त-पान पानी, उत्तिग और पनक पर निक्षिप्त हो तो वह भक्त-पान सयति के लिए अकल्पनीय होता है।
८० तेउम्मि होज्ज निक्खित्त त च सघट्टिया दए। त भवे भत्तपाण तु सजयाण अकप्पिय ।।
(द ५ (१) ६१. ग, घ, ६२ क, ख) यदि भक्त-पान अग्नि पर निक्षिप्त हो और उसका (अग्नि का) स्पर्श कर दे तो वह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है।
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आलोए गुरुसगासे ज जहा गहिय भवे।
(द ५ (१) ६० ग, घ) भिक्षा से लौटकर मुनि गुरु के समीप आलोचना करे-- जिस प्रकार से भिक्षा ली हो उसी पकार से गुरु को कहे।
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