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श्रमण सक्त -
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श्रमण सूक्त
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हिरण्ण जायरूव च
मणसा वि न पत्थए। समलेठुकचणे भिक्खू विरए कयविक्कए।
(उत्त. ३५ . १३)
क्रय और विक्रय से विरत, मिट्टी के ढेले और सोने को समान समझने वाला भिक्षु सोने और चादी की मन से भी इच्छा न करे।
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