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श्रमण सूक्त
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(३०२
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कोहे माणे य मायाए
लोभे य उवउत्तया। हासे भए मोहरिए
विगहासु तहेव च।। एयाइ अट्ठ ठाणाई
परिवज्जित्तु संजए। आसावज्ज मियं काले भासं भासेज्ज पन्नव।।
(उत्त. २४ . ६, १०)
मुनि क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता और विकथा के प्रति सावधान रहे-इनका प्रयोग न करे।
प्रज्ञावान मुनि इन आठ स्थानों का वर्जन कर यथासमय निरवद्य और परिमित वचन बोले।
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