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_श्रमण सूक्त
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निरट्ठिया नग्गरुई उ तस्स
जे उत्तमट्ठ विवज्जासमेई। इमे वि से नत्थि परे वि लोए दुहओ वि से झिज्जइ तत्थ लोए।।
(उत्त २० ४६)
जो अन्तिम समय की आराधना में भी विपरीत बुद्धि रखता है, दुष्प्रवृत्ति को सत्प्रवृत्ति मानता है उसकी सयम-रुचि भी निरर्थक है। उसके लिए यह लोक भी नहीं है. परलोक भी नहीं है। वह दोनो लोको से भ्रष्ट होकर दोनो लोको के प्रयोजन की पूर्ति न कर सकने के कारण चिन्ता से छीज जाता है।
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