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________________ श्रमण सूक्त - । २७४ - - - सम्मघमाणे पाणाणि बीयाणि हरियाणि य। असजए सजयमन्नमाणे पावसमणि त्ति वुच्चई।। सथार फलग पीढ निसेज्ज पायकबल। अप्पमज्जियमारुहइ पावसमणि त्ति वुच्चई। दवदवस्स चरई पमत्ते य अभिक्खण। उल्लघणे य चडे य पावसमणि त्ति वुच्चई।। (उत्त १७ . ६-८) द्वीन्द्रिय आदि प्राणी तथा बीज और हरियाली का मर्दन करने वाला, असयमी होते हुए भी अपने आपको संयमी मानने वाला, पाप-श्रमण कहलाता है। जो बिछौने, पाट, पीठ, आसन और पैर पोछने के कम्बल का प्रमार्जन किए बिना (तथा देखे बिना) उन पर बैठता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। जो द्रुतगति से चलता है, जो बार-बार प्रमाद करता है, जो प्राणियो को लाघकर उनके ऊपर होकर चला जाता है, 5.जो क्रोधी है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। - - २७४
SR No.034105
Book TitleShraman Sukt
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2000
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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