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श्रमण सूक्त
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हास किड्ड रइ दप्प सहसावत्तासियाणि य ।
भररओ थी
नाणुचिते कयाइ वि ||
(उत्त १६ ६ )
ब्रह्मचर्य मे रत रहने वाला भिक्षु पूर्व जीवन मे स्त्रियो के साथ अनुभूत हास्य, क्रीडा, रति, अभिमान और आकस्मिक त्रास का कभी भी अनुचितन न करे ।
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