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_श्रमण सूक्त ।
श्रमण सूक्त
(२३६
चत्तपुत्तकलत्तस्स
निव्वावारस्स भिक्खुणो। पिय न विज्जई किंचि अप्पियं पि न विज्जए।।
(उत्त ६ १५)
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पुत्र और स्त्रियों से मुक्त तथा व्यवसाय से निवृत्त भिक्षु के लिए कोई वस्तु प्रिय भी नहीं होती और अप्रिय भी नहीं होती।
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