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श्रमण सूक्त
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विजहित्तु पुव्वसजोग
न सिहं कहिंचि कुव्वेज्जा । असिणेह सिणेहकरेहि
दोसपओसेहिं मुच्चए भिक्खू ।।
( उत्त ८२)
पूर्व सम्बन्धो को त्याग कर, किसी के साथ स्नेह न करे । स्नेह करने वालो के साथ भी स्नेह न करने वाला भिक्षु दोषो और प्रदोषो से मुक्त हो जाता है।
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