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श्रमण सूक्त
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हत्थं पाय च काय च
पणिहाय जिइदिए। अल्लीणगुत्तो निसिए सगासे गुरुणो मुणी।।
(दस ८ ४४)
जितेन्द्रिय मुनि हाथ, पैर और शरीर को संयमित कर, आलीन (न अति दूर, न अति निकट) और गुप्त (मन और वाणी से सयत) होकर गुरु के समीप बैठे।
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