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श्रमण सूक्त
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जोग च समणधम्मम्मि
जुजे अणलसो ध्रुव । जुत्तो य समणधम्मम्मि अट्ठ लहइ अणुत्तर।।
(दस ८ ४२)
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मुनि आलस्य रहित हो श्रमणधर्म मे योग (मन, वचन और काया) का यथोचित प्रयोग करे। श्रमण-धर्म मे लगा हुआ मुनि अनुत्तर फल को प्राप्त होता है।
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