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SIC_श्रमण सूक्त
श्रमण सूक्त
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११३ ।
निहाण रसनिज्जूढ __ भद्दग पावग ति वा। पुट्ठो वा वि अपुट्ठो वा लाभालाभ न निद्दिसे।।
(दस ८ २२)
किसी के पूछने पर या बिना पूछे यह सरस है, यह नीरस है, यह अच्छा है, यह बुरा है—ऐसा न कहे और सरस या नीरस आहार मिला या न मिला—ऐसा भी न कहे।
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