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श्रमण सूक्त
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(१०२
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सुद्धपुढवीए न निसिए
ससरक्खम्मि य आसणे। पमज्जित्तु निसीएज्जा जाइत्ता जस्स ओग्गहं।।
(दस ८ : ५)
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मुनि शुद्धपृथ्वी (मुंड भूतल) और सचित्त-रज से ससृष्ट आसन पर न बैठे। अचित्त-पृथ्वी पर प्रमर्जन कर और वह जिसकी हो उसकी अनुमति लेकर बैठे।
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