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90/ सर्वोदयी जैन तंत्र
समाजवाद, साम्यवाद, गांधीवाद और सामाजिक पूजीवाद . जैनतंत्र के अपरिग्रहवाद के नये-नये रूप हैं जो क्षेत्र और काल के प्रभावों से विकसित हुए हैं। जैनों के इस अपरिग्रहवाद में वर्तमान की विषम आर्थिक एव सामाजिक समस्याओं के समाधान के बीज निहित हैं। __ इस सिद्धान्त का मूल मंत्र यह है कि व्यवसायो मे सत्य और ईमानदारी का मन, वचन और काय से परिपालन किया जाय। इस आधार पर कर वंचन, कर-चोरी, और स्मगलिग धर्म और नीति-दोनो के विरुद्ध है। आजकल अनुचित कार्यों के लिये मनोवैज्ञानिकतः दिये गये नरक सबंधी उपदेशो के प्रति जनसामान्य की उपेक्षावृत्ति तथा वर्तमान दड प्रक्रिया की कमजोरी के कारण ये प्रवृत्तिया निरतर बढ रही हैं और विषमता की खाई भी, फलतः वर्धमान है। इस दिशा मे धर्म के मनोवैज्ञानिक स्वरूप को जन-मन मे प्रवीजित करना एक अच्छा उपाय है। जैनतत्र आजीविका और व्यवसाय सभी क्षेत्रो मे नैतिक नियमो, अपरिहग्रहबाद की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति का पक्षधर है। यह वर्तमान के दलाली और कमीशन के माध्यम से परोक्ष और विपुल अर्जन की अनैतिक मानता है। यह प्रवृत्ति भौतिकतः सम्पन्न अवश्य बनाती है पर यह नैतिक एव आध्यात्मिक विकास की दिशा को हीयमान करती है। नैतिक मूल्यो का यह वर्धमान अवनमन वर्तमान युग की एक क्रातिक समस्या बन गई है।
हमे लालबहादुर शास्त्री के द्वारा चलाये गये “सप्ताह में एक बार का भोजन त्यागो" कार्यक्रम का स्मरण आता है जिसके माध्यम से उन्होने असख्य दरिद्रो को भोजन कराने में सहायता की कल्पना की थी। विनोबा भावे भी एक ऐसे ही अन्य महापुरुष थे जिन्होने भूदान-यज्ञ के माध्यम से भूमिहीनों को भूमि उपलब्ध कराने का आदोलन प्रारम्भ किया था। आजकल अकाल-वृष्टि, अधिवृष्टि, भूकप एव अन्य प्राकृतिक या मानवकृत दुर्घटनाओ के समय भोजन, वस्त्र, औषधि आदि का विश्व के विभिन्न भागो मे आपूरण करना भी अहिंसा और करुणा के अर्थशास्त्र का एक रूप है जो इन सिद्धान्तो के आशिक विश्वीकरण की प्रवृत्ति को निरूपित करता है। इसीलिये टोबायास कहता है कि जैनतंत्र यह सिद्ध करने मे सफल हुआ है कि व्यवसाय के अर्थशास्त्र की अहिंसक और अपरिग्रहवादी पृष्ठभूमि भी एक विकसित एव नैतिकतः सुखमय समाज की रचना कर सकती है।