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76/ सर्वोदयी जैन तत्र
पुराणो मे भी मिलता है। इन्होने और इनके उत्तरवर्ती अनुयायियो ने बातरशना, व्रात्य या श्रमणो के रूप में देश-विदेश (यूनान, ईराक, ईरान, सुवर्णभूमि, मलय आदि) मे पदयात्राओ के माध्यम से अहिसा सस्कृति को सर्दब सार्वत्रिक रूप में प्रसारित किया है। यद्यपि यह प्रक्रिया पिछले दोसौ वर्षों से पर्याप्त प्रगति पर है, पर इसके पूर्व का समुचित विवरण उपलब्ध नही होता। हा, कुछ सूचनाये अवश्य ऐतिहासिक काल क्षेत्र मे आती है।
शास्त्रो मे 25/- आर्य क्षेत्र एव 55 म्लेच्छ क्षेत्रो का वर्णन आता है। 'शिष्ट-जन-सम्मत व्यवहार न करने वाले अनार्य है' की शास्त्रीय परिभाषा में वर्तमान विश्व का अधिकाश भाग अनार्य ही माना जायेगा क्योकि वहा न तो जैन ही थे और न उनके उपदेशक । पर यह परिभाषा अब परिवर्धनीय हो गई है क्योकि हम देखते है कि ईसा से चार हजार वर्ष पूर्व ही न केवल श्रमण-साधु ही धर्म प्रसार-परिरक्षण यात्राये करते थे, अपितु "पणि" (जैन व्यापारी) भी एशिया के अनेक द्वीपो मे व्यापार हेतु जाते थे और वे धर्म एव सस्कृति के प्रत्यक्ष न भी सही तो परोक्ष प्रचारक होते थे। इस अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से उन्होने सुमेर, मिश्र, बेबीलोन सूबा, अफ्रिका, यूरोप एव एशिया के क्षेत्रो मे अपनी सस्कृति को फैलाया। ये सुमेर सम्यता के सस्थापक बने। यही नही इस बात के उल्लेख है कि मध्य एशिया के शासक गिलागमश लगभग 3600 ईसा पूर्व मे भारत यात्रा पर आये थे और उन्होने आचार्य उत्तनापिष्टिम के दर्शन किये थे। बाबुल 1140 ई०पूर्व के सम्राट नेबुचेदनजर ने गिरनार आकर वहा एक दानपत्र अर्पित किया था। क्वाजल कोरल के नेतृत्व मे पणिसघ वर्तमान अमरीकी क्षेत्र में 20000 ईसापूर्व मे गया था और वही बस गया। ऐसा ज्ञात होता है कि वर्तमान पश्चिमी क्षेत्रो मे भी जैन-सस्कृति का प्रभाव था। यही कारण है कि हगरी मे आये एक भूकप के समय बुदापेष्ट नगर के एक बगीचे मे एक तीर्थंकर प्रतिमा निकली थी। यूनान और अन्य क्षेत्रो मे जैन साधुओ का अस्तित्व बहुत प्राचीन काल से माना जाता है। वहा और मिस्र मे जैनमूर्तिया भी मिली है। समनेरस और "शमन' जैसे नाम भी इसी सस्कृति के प्रतीक लगते है। इस विषय मे "विदेशो मे जैन धर्म पुस्तक पठनीय है।
उपरोक्त उल्लेखो से ईसापूर्व सदियो मे विश्व के अनेक भागो मे जैन सस्कृति के व्यापक एव प्रभावक अस्तित्व का अनुमान लगता है। लेकिन