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58 / सर्वोदयी जैन तत्र
5. जैनतंत्र के भेद
ऐसा कहा जाता है कि प्रत्येक जीवित तत्र या उसकी सजीवता उसके सैद्धान्तिक मतवादो पर आधारित सम्प्रदायो के निर्माण पर निर्भर करती है। ये विशिष्ट मतवाद तत्र के बुद्धिवादी स्वरूप के प्रतीक तो होते ही है, उसके पुरातन और अधुनातन स्वरूप के भी द्योतक है। ये सैद्धान्तिक आधारो पर भी विकसित होते है और परिवर्तनशील परिवेश पर भी निर्भर करते हैं । जैन सघ भी इस परपरा का अपवाद नही रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि जैनतत्र का जाति आधारित 'वर्गीकरण सघभेद के बाद ही प्रकट हुआ होगा। यह सघ महावीर के बाद लगभग 150 वर्षों तक तक तो अविछिन्न बना रहा। उसके बाद इसमे विभिन्न समयो पर अनेक भेद प्रवीजित और विकसित हुये। इनमे से दो प्रमुख है - दिगबर और श्वेतांबर । इनका प्रादुर्भाव लगभव 360 ईस्वीपूर्व मे आचार्य भद्रबाहु - स्थूलभद्र के समय मे हुआ होगा जब मगध (बिहार) मे बारह वर्ष का अकाल पडा था । उस समय जो साधुसघ बिहार में रह गया था, उसने स्थूलभद्र के नेतृत्व में आगमबाचना और आगम सकलन किया। यह बाचना उस सघ को स्वीकार नही थी जो अकाल के समय धर्मरक्षार्थ दक्षिण की ओर चला गया था । यह बाचना साधुओ के दिगबरत्व और परिस्थितिवश आचार पर केन्द्रित थी । इनमे बाद मे स्त्रीमुक्ति, सर्वज्ञ की शारीरिक प्रवृत्तियाँ (दिव्यध्वनि, कवलाहार, आदि) तथा महावीर के विवाह आदि बिन्दु और समाहित हो गये। इसके अतिरिक्त, कुछ धार्मिक आचारो पर भी मतभेद हुये। इसके परिणामस्वरूप ' प्रथम सदी ईस्वी के लगभग जैन-सघ मे दो स्पष्ट भेद सामने आये । प्रायः सभी विद्वान यह मानते है कि दिगबर सघ अधिक परम्परावादी, कठोर साधुचर्ची, सिद्धान्त परिवर्तन के प्रति अनुदार और अधि-विश्वासी रहा है 1 इसके विपर्यास मे, श्वेताबर सघ इन विन्दुओ पर अधिक उदार और जैनधर्म - सवर्धक प्रवृत्ति का रहा है। यही कारण है कि इस सघ ने अनेक क्षेत्रो मे अनेक युगो मे उनके इतिहास निर्माण मे भी प्रमुख भूमिका निभाई है। इसके बावजूद भी, ये दोनो संघ मूर्तिपूजक थे और वे पद्रहवीं सदी तक जैन तत्र के प्रमुख सघ रहे। दोनो ही सघो मे अपनी-अपनी चतुविधे संघ-बद्धता रही।
भारतीय इतिहास के मध्यकाल मुस्लिम युग मे कट्टरवाद एवं मूर्ति