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50 / सर्वोदयी जैन तत्र
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स्थविरो, साधुओं, विद्वानो, भट्टारको एवं गृहस्थों- सभी ने इस विविधा-भरे साहित्य के सृजन मे अपने-अपने युगो मे महत्वपूर्ण योगदान किया है। वस्तुतः जैन साहित्य जैनो का ही नही, अपितु समग्र भारत का एक अनुपम कोषागार है। इस साहित्य का मूल उद्देश्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जैनतत्र की नैतिक शिक्षाओ का सम्प्रसारण है । इसीलिये विषय कुछ भी हो, उस पर जैनतत्र की मोहर अवश्य लगी दिखेगी ।
जैन साहित्य का निर्माण दो चरणो मे हुआ है- (1) पहली सदी के विषय-विभाजन के पूर्वकाल मे और (2) उत्तर-अनुयोग काल मे । ये दोनो ही साहित्य गुणात्मकता एवं सख्यात्मकता की दृष्टि से विशाल है। इसका काफी कुछ अश ऐसे साधुओ और भट्टारको ने लिखा है जिन्हे धर्म और समाज- दोनो को मार्गदर्शन देना पड़ता था । इस साहित्य की विशालता राजस्थान आदि क्षेत्रो के संरक्षित ग्रन्थ भण्डारो मे उपलब्ध लाखों पाडुलिपियो के अस्तित्व से ज्ञात होती है। यह साहित्य तत्कालीन भाषाओं मे लिखा गया है जिससे वह सहज बोधगम्य हो और महावीर के जनभाषी उपदेशों की धारा के अनुरूप हो ।
अनुयोग विभाजन के आधार पर यह पाया गया है कि प्रथम और तृतीय कोटि का साहित्य सर्वाधिक मात्रा मे है। वस्तुत सभी प्राचीन आगम साहित्य अनुयोग-विभाजन का पूर्वकालीन है। अतः उनकी कोटि प्रथम और तृतीय अनुयोगो का मिश्रित रूप व्यक्त करती है। यह आगम द्वादशागी कहलाता है जिसमे चौदह पूर्व भी समाहित हो गये है । तथापि, पूर्वो के नाम के आधार पर उनका अनुयोग अनुमानित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, महावीर के उत्तरवर्ती गणधरो एव स्थविरो ने जो साहित्य रचा है, उसमे भद्रवाहु का नाम प्रमुख है। इनके समय मे ही जैन संघ के वर्तमान दो प्रमुख घटको का प्रवीजन हुआ था। इन्होने प्रायः चरणानुयोग पर ही ग्रथ और टीकाये लिखी है। आचार्य गुणधर, पुष्पदन्त भूतबलि, कुद-कुद, समतभद्र, उमास्वामी (ति) बट्टकेर, शिवार्य, स्वामी कार्तिकेय, अमृतचन्द्र, आशाधर, और अन्य दिगबर साधुओं ने चरणानुयोग की कोटि का साहित्य लिखा है । शय्यंभव, श्याम आर्य, जिनभद्र, जिनदास, सघदास, हरिभद्र, शीलाक, अभयदेव, हेमचन्द्र, यशोविजय गणि तथा अन्य श्वेताम्बर आचार्यों ने भी इस कोटि का ही पल्लवन किया है, यद्यपि इनमें अनेको ने अन्य कोटि का साहित्यं भी लिखा है। इन आचार्यों का रचनाकाल ईसापूर्व