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साम्प्रदायिक स्वरूप अथवा षट्स्थल-शास्त्र
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'कितना ही प्राचीन क्यों न हो, वेद और उपनिषदोंसे अधिक प्राचीन नहीं है । उसके बादका ही हैं। भारतीय प्राध्यात्म-जगत में वेदोंका स्थान सर्वोपरि है । वेद स्वयं सिद्ध हैं। अत्यंत प्राचीन कालसे मानव-कुलके प्रत्येक समूहमें पवित्र प्रात्माओंने आत्यंतिक सत्यका साक्षात्कार किया है। उस अमृतानुभवके दैवी उन्मादमें उन्होंने अपने अनुभवका वर्णन किया है। तत्पश्चात् लोगोंने उस अनुभवको तथा उनकी वाणीको ही अपने धार्मिक आचार-विचारका आधार ‘माना है । वेद भी ऐसी ही दैवी वाणी है । वेदमें जो ज्ञानके बीज हैं उनका संग्रह और विकास उपनिषद् हैं । वेद और उपनिषदोंका सम्बन्ध दूध और घीका-सा है। हम दूधको जमाकर उसको मथते हैं। उसमेंसे मक्खन निकालते हैं । मक्खनको पिघलाकर घी बनाते हैं। वैसे ही वेदका अध्ययन और उसके मंथनसे उपनिषद् नामका ज्ञान निकला है। उपनिषद् वेदांतर्गत ज्ञान है और आगम उस ज्ञानको प्राप्त करनेकी साधना-पद्धति ।
'पागम' इस संस्कृत शब्दका मूल अर्थ है आना । किंतु क्या पाना ? कहाँसे आना ? इसका उत्तर है, परम्परागत प्राया हुआ शास्त्र ! 'गम' - यह धातु 'गत्यर्थ' है । इससे इसका अर्थ ज्ञान भी होता है । इसको 'या' का उपपद लगानेसे 'पूर्व-ज्ञान' ऐसा अर्थ हुआ । अर्थात् आगमका अर्थ 'परंपरागत चलता आया हुआ' और 'पूर्व ज्ञान' है, अथवा 'पूर्व परंपरागत चलता अाया हुआ ज्ञान ।' पौष्कर संहितामें कहा गया है 'प्राप्तोक्तिरागमस्सोऽपि' अर्थात् 'आगम प्राप्त वचन है !' यहाँ "प्राप्त" का अर्थ है "पर शिव"१ इस अर्थ में वेद भी प्राप्त वचन है । कई बार वेदको भी आगम कहा गया है । साथ-साथ कहीं-कहीं 'निगमागम' भी कहा गया है। यहाँ 'निगम' का अर्थ 'ज्ञान' और 'आगम' का अर्थ है (उस ज्ञानको प्राप्त करने का) 'साधना-शास्त्र'।।
अर्थात् आगमका अर्थ परंपरासे चलता आया हुआ साधना-शास्त्र है । इन्हें तंत्र भी कहते हैं । 'वेदागम' अथवा 'निगमागम' अथवा 'श्रुतितंत्र' कहनेकी परिपाटी है । सूक्ष्मागम में यह कहा गया है । तंत्र के संबंधमें कहा गया है, "तन्यते विस्तार्यते ज्ञानं अनेन गायते च इति तंत्रम् ।"२ यह तंत्र शब्दकी परिभाषा है, अथवा उसका निरुक्त है । इसी प्रकार कामिकागममें कहा गया है, "तत्व और मन्त्र मिलकर अनेक अर्थ होते हैं। इससे मनुष्यकी रक्षा करनेवाले शास्त्रको तंत्र
१. मगेंद्रागमकी प्रस्तावना। २. जिस शास्त्रसे ज्ञानका प्रसार होकर मानवका उद्धार होता है वह तंत्र है । .३. तनोति विपुलानर्थान् तंत्रमंत्रसमन्वितान्
त्राणंच कुरुते यस्मात् तंत्रमित्यमिधीयते ।।