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दो शब्द . वीर-शैव वचनकारोंके सम्बन्धमें लिखी मेरी कन्नड़-पुस्तकके हिन्दीसंस्करणका मेरी ओरसे हार्दिक स्वागत है । एक सुन्दर पुस्तकके रूपमें प्रकाशित इस हिन्दी-रूपान्तर (कन्नड़ वचन गद्यकी मौलिक शैलीमें) के लिए मैं बाबुराव कुमठेकरको धन्यवाद देता हूं।
भारत-विद्याके विद्यार्थियोंके लिए संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि भाषाओंकी रचनाओं अथवा इनके अनुवादों का अध्ययन एक प्रकारसे काफी बोझिलसा हो जाता है, किन्तु यदि कोई भारतीय जीवन, विचारधारा तथा संस्कृतिकी वास्तविक गहराई, उनकी विशालता तथा , सम्पन्नतासे भलीभांति परिचित होना चाहता है तो उसके सामने भारतको विभिन्न भाषाओंका विशाल साहित्य पड़ा है। इसके अध्ययनके बिना कोई भी ज्ञान अधूरा ही रहेगा । किसीका यह सोचना नितान्त अनुचित है कि विभिन्न भारतीय भाषाओंकी साहित्यिक रचनाएं केवल पुनरावृत्ति और अनुकृति मात्र ही हैं। भारतीय रचनात्मक प्रेरणा अटूट रूपसे चली आ रही है । न कभी भारतीय प्रतिभाका अन्त हुआ है, न उसकी अन्तनिहित शक्ति तथा मौलिकताका ही।
कन्नड़ भाषामें वचन-साहित्य' अत्यन्त मौलिक तथा अपने ही ढंगकी अनोखी वस्तु है, जो वीर-शैव अनुभावियोंकी रचनाओंका अनुपम और अनन्त भण्डार है। . इस वचन-साहित्य में सौ वर्षोंकी अवधिमें हुए लगभग दोसौ वचनकारोंके, जिनमें तीस महिलाएं भी सम्मिलित हैं, अपने अनुभव हैं । यह साहित्य' भाष्यात्मक नहीं, सूत्रात्मक है। यह गद्यमें होते हुए भी कहीं-कहीं पद्यात्मकताकी चरम सीमा तक पहुंच गया है । यह श्रुति-साहित्य है, कृति-साहित्य नहीं। यह उनकी सामूहिक साधनामें प्राप्त अनुभवोंके कथनसे भरा है न कि रचनामात्रसे । उनके विचार तथा भावनाओंकी विशालता समृद्ध जीवनके विकासकी सीमा तक फैली हुई है और गहराई हृदयके अन्तरालकी प्रात्मानुभूतिकी सीमा पार कर उसके गाभेमें जा रोपित हई है; तथा उनकी जीवन-पद्धति विविधतासे इतनी भरी है कि उसमें जीवनके सामान्य नीति-नियमोंसे लेकर ईश्वरमें समर्पित मुक्तावस्था तककी स्थितिका समावेश है। ये वचनकार प्राध्यात्मिकताके सर्वोच्च शिखरपर पहुंचकर जाति-पांति, वर्ण-वर्ग, धर्म तथा