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________________ वचन-साहित्य-परिचय अब वचनकारोंकी शब्द-संपत्तिका विचार करें । वचनकारोंकी शब्द-संपत्तिका विचार करनेसे पहले हमें कन्नड़ साहित्यके इतिहासकी कुछ मोटी बातें जान लेना आवश्यक है । कन्नड़ साहित्यका सूक्ष्मतासे अवलोकन किया जाय तो वचन-साहित्यका काल युग-परिवर्तनात्मक काल है । वचनकारोंके अन्नणी श्री वसवेश्वर' इस युगके युग-पुरुष हैं । साहित्यकारके नामसे युगका नामकरण करना हो तो, जैसी कि हिंदीमें परिपाटी है, इस युगको 'श्री बसवेश्वर युग' कहना होगा । बसवेश्वर के युगसे पहले 'पंपयुग' था। पंप कन्नड़का महान् कवि है । विद्वानोंकी यह मान्यता है कि उनका काव्य विश्व-साहित्यमें भी उच्च कोटिका काव्य कहा जा सकता है। पंपयुगके १९ महाकवियों में १५ या १६ महाकवियोंने किसी न किसी राजाश्रयमें रहकर साहित्यका निर्माण किया। और वसव-युगके ३६ महान साहित्यिकोंमेंसे केवल १२ साहित्यिकोंने राजाश्रयमें रहकर साहित्य-सृजन किया। इसमें और एक बात अत्यंत महत्वकी है, और वह यह कि 'पंप युग' के १६ कवियोंमेंसे १५ या १६ महाकवि जैन थे और वह सबके सव राजाश्रयमें थे ! तथा बसवेश्वर युगके महान साहित्यिकोंमेंसे एक भी वीर-शैव साहित्यिक किसी भी राजाके आश्रयमें नहीं दीखता । जैन कवियोंके सभी ग्रंथोंकी शैलीका अवलोकन किया जाय तो पचानवे प्रतिशत चंपूकाव्य है और वीर-शैव साहित्यिकों की रचनाका विचार करें तो उनमें वचनगद्य, व्याख्यानगद्य, पद्य, त्रिपदी, रगले, पट्पदीके कई प्रकार, कंदवृत्त, सांगत्य, आदि विविध प्रकार पाये जाते हैं, जो संस्कृत अथवा संस्कृतजन्य अन्य भाषाओंमें नहीं पाये जाते। पहला युग, जिसको पंपयुग कहा गया, राजाश्रयमें रहकर रचे गये राजमान्य साहित्यका युग था और श्रीबसवेश्वरयुगमें लोकशिक्षार्थ रचे गये लोकमान्य साहित्यका युग था । अर्थात् वचनकारोंकी शब्द-संपत्ति लोकभाषासे ली गयी थी । वचन-साहित्यमें अधिकतर सरल, - सुलभ, बहु प्रचलित कन्नड़ शब्द हैं। नहीं तो संस्कृतजन्य तद्भव या तत्सम । • संप्रदायके पारिभाषिक शब्दोंको छोड़ दिया जाय तो संस्कृतके शब्द बहुत कम हैं। किंतु बसवेश्वर-युगसे पहलेके साहित्यमें सर्वत्र, संस्कृत-का अंधानुकरण दिखायी देता है । साथ-साथ उनकी शब्द-संपत्ति भी संस्कृत-प्रचुर ही नहीं, - संस्कृतमय हो गयी थी। वचन-साहित्यका उद्देश्य ही लोक-सेवा और लोकशिक्षा रहा, अस्तु लोक-भाषामें ही उसका निर्माण भी हुआ। उनके पारिभाषिक संस्कृत शब्द, जैसे लिंग, अंग, इष्टलिंग, प्राणलिंग, निजैक्य आदि सर्व १. ई० स० ११५० २. ई० स० १४०
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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