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रमण महर्षि
अपने से बाहर एक विश्व तथा अपने ऊपर एक भगवान् की वास्तविकता मे विश्वास करना होगा और तब तक द्वित्व और भक्ति का माग उसके लिए समीचीन है । अगर इसका सच्चे हृदय से अनुसरण किया जाय तो यह उमे इस जीवन मे या आगामी जीवन मे अद्वैत की ओर ले जायगा । च कि यही अन्तिम लक्ष्य है, मार्ग का यह अन्तिम सोपान भी होगा। भगवान् के कथन का यही तात्पय है "अन्त मे सभी मनुष्य अरुणाचल की ओर आयेगे।" प्रतीयमान त्रिगुण सत्ता के सम्बन्ध मे उन्होने कहा, "सभी धम तीन आधारभूत तत्वो की स्थापना करते हैं व्यक्ति, भगवान और विश्व । केवल तभी तक जब तक व्यक्ति का अस्तित्व रहता है, या तो ऐसा कहा जाता है, "एक अपने को तीन रूपो मे प्रकट कर रहा है" या "तीन वस्तुत तीन हैं।" सर्वोच्च अवस्था आत्मलीनता और अह के लोप की है। (फार्टी वसिज ऑव रिएलिटी, दूसरा खण्ड)
पश्चिमी विचारक मुख्यत विश्व की मायावी प्रकृति का विरोध करते हैं और वस्तुत: अपने दृष्टिकोण से वह ठीक कहते हैं, क्योकि विश्व की भी उतनी ही वास्तविकता है, जितनी कि मनुष्य के अह की। जब तक व्यक्ति अपने अह को अवास्तविक नहीं समझता वह विश्व को अवास्तविक नही समझ सकता। पश्चिमी दर्शन का यह सिद्धान्त कि मेरा अह वास्तविक है और अन्य सव वस्तुएं अवास्तविक हैं, स्पष्टत असगत है, परन्तु अद्वैत ऐसी घोषणा नहीं करता। एक स्वप्न द्वारा दोनो सिद्धान्तो का अन्तर समझाया जा सकता है। यह मानना कि विश्व माया है जबकि मेरा अह वास्तविक है, इस प्रकार का कथन होगा कि स्वप्न में 'मैं' वास्तविक है परन्तु अन्य लोग स्थान और परिस्थितियां अवास्तविक हैं, जो कि सर्वथा असगत है। वास्तविक स्थिति यह है कि 'मैं' सहित सारा स्वप्न पदाथनिष्ठ वास्तविकता के विना है। इसलिए जैसे ही व्यक्ति अपने अह की अवास्तविकता को हृदयगम कर लेता है, वह विश्व की अवास्तविकता को भी हृदयगम कर लेता है परन्तु इससे पूर्व नहीं । इसकी इस प्रकार व्याख्या की जा सकती है जैसे स्वप्न, स्वप्न रूप मे मत्य होता है परन्तु पदार्थनिष्ठ वास्तविकता के रूप मे अवास्तविक होता है, उसी प्रकार आत्मा की अभिव्यक्ति के रूप मे विश्व वास्तविक है परन्तु आत्मा से बाहर पदाथनिष्ठ वास्तविकता के रूप मे अवास्तविक है । भगवान् ने एक बार एक भवन को इम प्रकार समझाया था
"लोगो ने शकगचाय के माया के दशन के अथ को ममचे विना उसकी आलोचना की है। उसने तीन स्थापनाएं की ग्रह्म वास्तविक है, विश्व अवास्तविक है, और ब्रह्म विश्व है। वह दूमरी स्थापना के साय ही नही स्व गये । तीसरी स्थापना पहली दो की व्याम्या करती है, यह घोपित करती है कि जब विश्व को ब्रह्म से पृथक् करके देखा जाता है