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वह अभिनय करने जा रहा है, परन्तु वह यह वस्तुत जानता है कि वह पाय नहीं है बल्कि वास्तविक जीवन में कुछ और है। इसी प्रकार, जव भाप यह निश्चित रूप से जानते हैं कि आप शरीर नही बल्कि आत्मा हैं तव शरीरचेतना या 'मैं शरीर हूँ इस प्रकार की भावना आपको उद्विग्न क्यो करे ? शरीर के किसी भी कार्य से आपकी आत्मलीनता में किसी प्रकार का व्याघात उपस्थित नहीं होना चाहिए। इस प्रकार की आत्मलीनता से शरीर के कतव्यो के समुचित तथा प्रभावी निवहन में किसी प्रकार की वाघा उपस्थित नही होगी, जिस प्रकार एक अभिनेता के जीवन में अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित होने के कारण, रगमच पर अभिनय करने में कोई वाधा उपस्थित नहीं होती।"
जिस प्रकार ध्यान या स्मरण, आप जो नाम भी इसे दें, से काय मे वाधा नहीं पडती, इसी प्रकार कार्य से ध्यान मे किसी प्रकार की वाधा नही पडती। श्रीभगवान् ने पाल बटन महोदय के साथ वार्तालाप के दौरान इसकी स्पष्टत व्याख्या की है। ___ भगवान् क्रियाशील जीवन के परित्याग की आवश्यकता नही है । यदि आप प्रतिदिन एक या दो घटे ध्यान मे बैठे, आप अपना फतव्य भली-भांति सपन्न कर सकते हैं । अगर आप ठीक ढग से ध्यान करें तो आपके काय के दौरान भी ध्यान की धारा सतत रूप से प्रवहमान रहेगी। यह ऐसे है जैसे मानो एक ही विचार की अभिव्यक्ति के दो तरीके है, ध्यान मे आप जो विचार-सरणि अपनायेंगे वही आपकी गतिविधियो मे अभिव्यक्त होगी।
पाल बटन इस प्रकार के आचरण का परिणाम क्या होगा?
भगवान् जैसे-जैसे आप इसका अभ्यास करते जायेंगे, आपको ऐसा प्रतीत होगा कि लोगो, घटनाओ और पदार्थों के सम्बन्ध मे आपकी धारणा में धीरेधीरे परिवतन होता जा रहा है। आपकी क्रियाएँ स्वयमेव आपके ध्यान का अनुसरण करने लगेंगी।
व्यक्ति को चाहिए कि वह वैयक्तिक स्वाथ का, जो उसे इस ससार के साथ बांधे हुए है, परित्याग कर दे।
पाल बटन सासारिक गतिविधि का जीवन व्यतीत करते हुए नि स्वार्थ रहना किस प्रकार सम्भव है ?
भगवान् काय और प्रज्ञा मे कोई सघष नहीं है।
पाल ग्रटन आपका कहने का अभिप्राय क्या यह है कि व्यक्ति अपनी व्यावसायिक गतिविधियां जारी रखते हुए भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कर सकता है ?
भगवान् क्यों नहीं? पर उस अवस्था में व्यक्ति यह नही सोचेगा कि उसका पुरातन व्यक्ति काय सपन्न कर रहा है क्योकि उसकी चेतना धीरे-धीरे