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रमण महर्षि
श्रीभगवान् पहले ही इस उच्च अवस्था मे थे, हालांकि वाह्य ससार का ज्ञान अभी निरन्तररूप से नही बना था। बाद में श्रीभगवान् का वाह्य गतिविधियो की ओर प्रतिवर्तन केवल दीखने मात्र का था परन्तु उनमे वस्तुत कोई परिवर्तन नही हुआ था । श्रीभगवान् ने 'महर्षोज गॉस्पल' मे इसकी इस प्रकार व्याख्या की है
"ज्ञानी की स्थिति में अह का उदय या अस्तित्व देखने मात्र का होता है और वह अह के इस प्रकार के प्रत्यक्ष उदय या अस्तित्व के बावजूद, सदा अपना ध्यान स्रोत पर केन्द्रित रखते हुए परमानन्द की अविच्छिन्न धारा में लीन रहता है। यह अह हानिप्रद नहीं होता, यह तो जली हुई रस्सी के सदृश होता है यद्यपि इसका रूप होता है तथापि इसे बांधने के प्रयोग मे नही लाया जा सकता।"