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महासमाधि
१६३ गान करते हुए जलूम नगर से आते और जाते रहे। मभा-भवन में कुछ भक्तजन प्रशस्ति और द ख के गीत गाते रहे, दूसरे मौन भाव से बैठे रहे। सवाधिक विचारणीय मनप्यो का शोक नही अपितु इसके अन्तहित शालि थी। ये ऐसे पुरुष और महिलाएं थी जो उस महापुरुप को खो बैठे थे जिमकी अनुकम्पा ही उनके जीवन का एक मात्र अवलम्ब थी। उस प्रथम रात्रि को
और उसके बाद के दिनों में यह मर्वथा स्पष्ट हो गया था कि भगवान् के शन्द कितने प्रेरणाप्रद थे "मैं दूर नहीं जा रहा हूँ। मैं जा ही कहां मकता हूँ? में यहाँ हूँ।" 'यहाँ' शब्द से कोई सीमा अभिप्रेत नहीं है बल्कि इसका अभिप्राय यह है कि आत्मा है, वह अमर है, अपरिवतनशील है, विश्वव्यापी है। जैसेजमे भक्तो ने भगवान की अपने हृदय मे तथा तिरुवन्नामलाई मे निरन्तर, दिव्य उपस्थिति को अनुभव किया उन्होंने इसे भगवान के प्रेम और भावनामय वचन की पूर्ति समझा। - उस जागरण-रात्रि को भगवान् के अन्तिम मस्कार के सम्बन्ध मे निणय किया गया । कई लोगा का विचार था कि शगैर नये भवन में दफना दिया जाये, परन्तु वहुत से भक्तो ने इस विचार का विरोध किया। उन्होंने ऐमा अनुभव किया कि सभा-भवन मदिर का ही भाग था, इससे श्रीभगवान् का स्मारक माता के स्मारक मे गौण हो जायेगा। अगले दिन, सवसम्मति से एक गढा खोदा गया और शरीर को पुराने समा-भवन तथा मन्दिर के मध्यवर्ती स्थान में दफना दिया गया। मौन शोक सागर में निमग्न जन-समूह ने यह मब अपनी आंखो से देवा । अव वह प्याग चेहरा दिखाई नही देगा, अव भगवान् की वह मधुर आवाज सुनाई नहीं देगी। स्मारक पर शिव का प्रतीक रूप चिकने कृष्ण वर्ण पत्थर का लिंग वाह्य चिह्न के रूप में विद्यमान था और हृदय में उनके चरण-चिह्न थे ।