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कुछ प्रारम्भिक भक्त
१० गुप्त 'आनन्द धाम' का दूत हो और युग के सद्गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा के पुष्प समर्पित करने आया हो।
उपर्युक्त दशनार्थी के एक गीत में श्रीभगवान् को 'रमण सद्गुरु' कहा गया है। जव एक बार इस गीत का गान हो रहा था, श्रीभगवान् स्वय इसमे सम्मिलित हुए। इस गीत के गायक भक्त को हंसी आ गयी और उसने कहा, "मैंने पहली बार किसी को अपनी प्रशस्ति गाते हुए सुना है।"
श्रीभगवान् ने उत्तर दिया, "आप रमण को छ फुट तक ही क्यो सीमित रखते हैं ? रमण तो विश्वव्यापी है।"
पांच गीतो मे से एक गीत मे उपा और जागरण का इतना अलौकिक और सुन्दर वणन है कि यह विश्वास करना सहज है कि इस गीत के गीतकार के जीवन मे वस्तुत उपा का उदय हुआ है
पहाडी पर अरुणोदय हो रहा है, मधुर रमण, आओ। भगवान अरुणाचल, आओ! झाडी म कोयल गीत गाती है, प्रिय स्वामिन, रमण आओ। ज्ञान के आगार, आओ शव बज रहा है, तारों का प्रकाश मद्धिम पड गया है, मधुर रमण, आओ। देवाधिदेव, आओ। मुर्ग वांग देते हैं, पक्षी चहचहा रहे हैं, समय हो गया है, आभो रात्रि विदा ले चुकी है, आओ। सूयनाद हो रहा है, ढोल बज रहे हैं, देदीप्यमान रमण, आओ! ज्ञान के भण्डार, आओ। सौए को-को करते हैं, सवेरा हो गया है सप-माल स्वामिन्, आओ। नीलकण्ठ स्वामिन्, आओ । अमान दूर हो गया है, हृदय-कमल खिल रहे है, प्रज्ञावान् रमण, आओ। वेदो के किरीट, आओ।