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कुछ प्रारम्भिक भक्त
इसके अतिरिक्त हम्फ्रीज़ महोदय को, पश्चिम मे प्राय सवत्र और माधुनिक पूर्व मे अनेक स्थानो पर व्याप्त इस भ्रान्ति से कि केवल वाद्य गतिविधि द्वारा मानव-जाति की सहायता सम्भव है, छुटकारा मिल गया । उन्हें यह आदेश दिया गया था कि अपनी सहायता आप करने से व्यक्ति ससार की सहायता करता है। यह सिद्धान्त जिसे यथेच्छकारिता के मानने वाले गलत रूप मे अर्थशास्त्र मे सत्य समझते हैं, वस्तुत आध्यात्मिक दृष्टि से सत्य है, चूकि आध्यात्मिक दृष्टि से एक व्यक्ति का धन दूसरे व्यक्ति के धन को कम नहीं करता वल्कि इसमे वृद्धि करता है। जैसे कि हम्फ्रीज़ ने अपनी प्रथम भेंट मे श्रीभगवान को निश्चेप्ट शव के रूप में देखा था जिसमे से देवी प्रकाश निस्सृप्त हो रहा है, वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुरूप अदृश्य प्रभावो का प्रसारण केन्द्र है। जहाँ तक कोई व्यक्ति समस्वरता की स्थिति में है और अहभाव से स्वतन्त्र है, वह अनिवाय और अनच्छिक रूप से समस्वरता का प्रसार कर रहा है, भले ही वह वाह्य रूप से सक्रिय हो या न हो, और जहाँ तक उसकी अपनी प्रकृति विक्षुब्ध है, वह अशान्ति का प्रसार कर रहा है, भले ही वह वाह्य रूप से मेवा कर रहा हो। __ यद्यपि हम्फ्रीज़ महोदय श्रीभगवान् के माथ कभी नही रहे और उन्होने केवल कुछ वार ही उनके दशन किये, तथापि उन्होंने उनकी शिक्षाओ को आत्मसात कर लिया और वे उनकी अनुकम्पा के भाजन वने। उन्होंने अपने एक मित्र को अग्रेजी मे एक मक्षिप्त विवरण भेजा था, जो वाद मे इण्टरनेशनल साइकिफ गजट में प्रकाशित हुआ। इसमे श्रीभगवान् की शिक्षा का सार निहित है।
__ "शिक्षक वही है, जिसने एक मात्र भगवान् का चिंतन किया है, अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व को भगवान के समुद्र में फेंक दिया है और वो दिया है, और इसे वहीं भुला दिया है, वह मात्र भगवान का साधन वन कर रह गया है और जब उसका मुख खुलता है, उसमे से विना प्रयास और पूर्व-विचार के भगवान् को वाणी निकलती है, और जब वह अपना हाथ उठाता है, चमत्कार करने के लिए उसमे से भगवान की शक्ति प्रवाहित होती है।
"मानसिक शक्तियो के सम्बन्ध मे बहुत अधिक मत सोचो। उनकी सध्या अनन्त है और जब एक वार अन्वेपक के हृदय मे मानसिक शक्तियों के विपय मे आम्था दृढ़ हो जाती है इस प्रकार की चमत्कारी घटनाएँ अवश्य घटित होती हैं। परोक्षदशन और अतिश्रवण तथा इस प्रकार की अन्य शक्तियों की मिदि व्यथ है क्योकि इनके बिना भी महान्