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कुछ प्रारम्भिक भक्त
उदाहरण चुने जा सकते हैं, तथापि श्रीभगवान् के पचास और उससे अधिक वर्षों की जीवन-अवधि, जो उन्होंने हमारे मध्य व्यतीत की, मे बहुत थोडे हैं।
आनन्द-विभोर शिवप्रकाशम् पिल्लई ने उस दिन जाने का विचार छोड दिया । अगले सायकाल जैसे ही वह श्रीभगवान् के सम्मुख बैठे, उन्हे फिर दशन हुए। इस वार भगवान् का शरीर प्रात कालीन सूर्य के समान चमक रहा था और उनके चारो ओर पूर्ण चन्द्र की युति विराजमान थी। इसके बाद उन्होने सम्पूर्ण शरीर को पवित्र राख से ढके हुए और उनके नेत्रो को करुणा से चमकते हुए देखा। फिर दो दिन बाद उन्हे दर्शन हुए। इस बार उन्हें श्रीभगवान् का शरीर शुद्ध स्फटिक का दिखायी दिया। वह अभिभूत हो उठे। उन्हें उस स्थान का परित्याग करते हुए भय अनुभव होने लगा कि कही उनके हृदय-सरोवर में उठने वाली अवनीय आनन्द की लहरें शान्त न हो जायें । वह अपने गाँव वापस आ गये, उनके न पूछे गये प्रश्नो का उत्तर मिल चुका था । उन्होंने अपना शेष जीवन ब्रह्मचय और तपस्या में विताया। इन सब अनुभवों का उन्होने एक तमिल कविता मे वणन किया है। उन्होने भगवान् को प्रशंसा मे अन्य कविताएँ भी लिखी, जिनमें से कुछ कविताओ का गान आज भी भक्त - जन करते हैं ।
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नटेश मुदालियर
श्रीभगवान् के पास आने वाले सभी व्यक्ति उनके मौन उपदेश को नहीं समझते थे । अतत नटेश मुदालियर ने इस मोन उपदेश को समझा, परन्तु इसमें काफी समय लगा। जब उन्होंने विवेकानन्द के ग्रन्थ पढे और वह ससार का परित्याग तथा गुण को खोज करने के लिए अत्यन्त उत्सुक हो उठे, उस समय वह एक प्रारम्भिक स्कूल मे पढाते थे। मित्रो ने उन्हें अरुणाचल पहाडी के स्वामी के सम्बन्ध में बताया परन्तु साथ ही यह भी कह दिया कि उनसे आदेश ग्रहण करना अत्यन्त कठिन है । मुदालियर ने प्रयास करने का निर्णय किया । १६१८ की बात है, श्रीभगवान् पहले ही स्कन्दाश्रम मे विराजमान थे । मुदालियर वहाँ गये और श्रीभगवान् के सम्मुख बैठ गये परन्तु वह मोन रहे और मुदालियर, जिन्होंने पहले न बोलने का निर्णय कर लिया था, निरा होकर लौट आये ।
अपने इम प्रयत्न में असफल होकर उन्होंने अन्य स्वामियों के दर्शन के लिए यात्रा की, परन्तु उन्ह कोई ऐसा स्वामी नही मिला जिसमे उन्हें दिव्य ज्योति की Hee दिखाई दी हो और जिसके आगे वह आत्म-समर्पण कर सकें। दो वप नो निष्क्रिय खोज के बाद उन्होंने श्रीभगवान् को एक लम्बा पत्र लिखा और उनसे प्राथना की कि वह ज्ञानोत्सुक आत्माओं के प्रति स्वाथमय उदासीनता का व्यवहार न करें और चूकि उनकी पहली यात्रा निष्फल सिद्ध हुई थी