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आऊंगा। हो सकता है तब स्रोत तक वापस आने की जरूरत ही न पड़े, क्योंकि अपने साक्षीभाव में तुम चाहे कहीं रहो, तुम मेरे निकट रहोगी। तुम स्रोत के निकट होओगी।
स्रोत कोई तुमसे बाहर नहीं है। और जब तुम वास्तव में मुझे सुनती हो तो यह किसी ऐसे व्यक्ति को सुनना नहीं है जो तुम्हारे बाहर हो। यह किसी ऐसे को सुनना है जो तुम्हारे भीतर है। यह तुम्हारी अपनी आंतरिक आवाज है। जब तुम मेरे प्रेम में पड़ती हो तो वस्तुत: जो हुआ है वह यह कि तुम पहली बार अपने प्रति प्रेम में पड़ी हो।
आज इतना ही।
प्रवचन 83 - तत्क्षण बोध
योग-सूत्र:
(विभुतिपाद)
ग्रहणस्वरूपास्मिजन्वयार्थवत्यसंयमादिन्द्रियजयः।।48।।
उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप, अस्मिता, सर्वव्यापकता और क्रियाकलापों पर संयम साधने से ज्ञानेंद्रियों पर स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।
ततो मनोजवित्व विकरणभाक प्रधानजयक्य।।49।।
इसके उपरांत देहू के उपयोग के बिना ही तत्क्षण बोध और प्रधान (पौद्गलिक जगत) पर पूर्ण स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।
सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्यं सबंज्ञातृत्व च।। 5०।।